लोकसभा के चुनाव जब अंतिम चरणों से गुजर रहे हैं ऐसे में ही मुस्लिम आरक्षण का मुद्दा अचानक क्यों उछला! कांग्रेस के घोषणा पत्र में इस बार भले ही यह मुद्दा न हो लेकिन 2009 के उसके चुनाव घोषणा पत्र में वह था। फिर यह न्यायालय में अटक गया। यही वजह है कि कांग्रेस ने इस बार इसे घोषणा पत्र में जगह नहीं दी। इसके बावजूद अब जब चुनाव अंतिम चरणों से गुजर रहे हैं यकायक यह मुद्दा उछला है। ऐसे में तो इसका कारण मतों के धु्रवीकरण का प्रयास ही है। चुनाव के इस दौर में जिन राज्यों में चुनाव हो रहे हैं उनमें उत्तर प्रदेश, बिहार, प. बंगाल प्रमुख हैं। इन राज्यों में मुस्लिम आबादी अधिक होने के कारण यह सवाल उछला है। तुष्टीकरण हो या बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक मतों के ध्रुवीकरण की राजनीति, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। संविधान की व्यवस्था में धर्म या आर्थिक दोनों को आरक्षण का आधार नहीं माना गया है। सामाजिक पिछड़ापन ही इसका आधार है। मुसलमानों में पिछड़ी जातियों को ओबीसी में आरक्षण प्राप्त है। तब मुस्लिम आरक्षण की अलग से मांग का क्या अर्थ है! यहां संघर्ष ओबीसी आरक्षण में कोटे में कोटे के बिंदु पर है। अजा-अजजा आरक्षण और ओबीसी आरक्षण में यहां फर्क है। इस्लाम में छुआछूत या जाति प्रथा को धार्मिक मान्यता नहीं है। इसके बावजूद मुसलमानों में भी व्यवहारतया जाति प्रथा घर कर गई है। हिंदुओं में जाति भेद से व्यथित अजा-अजजा समाज के जो लोग बौद्घ धर्म में धर्मांतरित हुए हैं, उन्हें आरक्षण की सुविधाओं से महरूम नहीं किया गया है। इसका कारण है कि संविधान में बौद्घ और जैन धर्म को हिंदू धर्म का ही अंग माना गया है। लेकिन इन समुदायों में से इस्लाम कबूलने वालों को अजा-अजजा आरक्षण से बाहर माना जाता है। सामाजिक पिछड़ेपन के कारण वे ओबीसी आरक्षण के अधिकारी तो हो सकते हैं लेकिन अजा-अजजा आरक्षण के अधिकारी नहीं हो सकते। कांग्रेस कोटे में कोटे का जो प्रावधान विकसित करने की कोशिश कर रही है वहां आधार धर्म हो जाता है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कांग्रेस के इन प्रयासों को नामंजूर कर दिया है और मामला सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है। तब लोकसभा चुनाव में यकायक यह सवाल क्योंकर उठाया जा रहा है! यह वोट बैंक की राजनीति के अलावा कुछ नहीं है।
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