Thursday 20 March 2014

चुनावी शोर में गायब असल मुद्दे

रमेश पाण्डेय
आम चुनाव का माहौल देश की समस्याओं और जनता को मथ रहे मुद्दों का दर्पण होता है, लेकिन क्या मौजूदा माहौल को देखकर कहा जा सकता है कि देश के असल मुद्दों पर यह चुनाव होने जा रहा है। मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी सिर्फ आडवाणी, मोदी और मुलायम की उम्मीदवारी और आम आदमी पार्टी के शोर से ही भरा पड़ा है। देश के असल मुद्दे कहीं छुप गए हैं। पखवरे भर पहले हुई ओलावृष्टि ने मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के किसानों पर कहर बरपाया। दोनों राज्यों में रबी की तैयार फसल बर्बाद हो गई। इसके बावजूद चुनावी माहौल में किसान कहीं मुद्दा ही नहीं है। उसकी बर्बाद हुई खेती और जीविका सवाल नहीं है। सिर्फ दो हफ्तों में महाराष्ट्र में 25 से ज्यादा हताश किसानों ने आत्महत्या कर ली है। विदर्भ, आंध्रप्रदेश और पंजाब में पिछली सदी के आखिरी दशक में हुई किसानों की आत्महत्याओं को तब जमकर तूल दिया गया था। इसका असर यह हुआ कि तीनों ही राज्यों में सरकारें बदल गई थीं। 2011 की जनगणना के मुताबिक तमाम उदारीकरण और औद्योगीकरण के बावजूद करीब 67 फीसदी जनसंख्या की जीविका अब भी खेती-किसानी पर ही टिकी हुई है। जाहिर है कि इसी अनुपात में देश का करीब सत्तर फीसदी वोटर भी खेती-किसानी से सीधे जुड़ा हुआ है। इसके बावजूद अगर किसानों के मुद्दे चुनावी विमर्श से गायब हों, राजनीतिक दलों के एजेंडे में उनकी पूछ ना हो और उससे भी बड़ी बात यह कि इन मुद्दों को लेकर मीडिया भी संजीदा ना हो तो इनकी भूमिका पर सवाल उठना लाजिमी है। चुनावी माहौल और मीडिया से किसानों के मुद्दों का गायब होना शस्य श्यामला भारतीय धरती और संस्कृति के लिए बड़ा सवाल है। चुनावी माहौल ही क्यों उदारीकरण ने किसानों के मुद्दों को दरकिनार कर दिया है। जिनके जरिए इस देश के 125 करोड़ लोगों का पेट भरता हो, वे लोग और उनकी समस्याएं भारतीय राजनीति में इन दिनों हाशिए पर हैं। समाजवादी राजनीति के वर्चस्व के दौर में किसानों-मजदूरों और पिछड़ों की आवाज उठाए बिना सत्ताधारी कांग्रेस का भी काम नहीं चलता था। वामपंथी दलों का तो निशान ही खेती-किसानी से जुड़ा हुआ है। लेकिन भारतीय राजनीति में उनकी आवाज लगातार कमजोर हुई है। हालांकि किसानों की समस्याओं को वे अब भी संजीदगी से उठाते रहते हैं। लेकिन उदारवाद के दौर में उभरी राजनीति और मीडिया ने इन आवाजों से लगातार अपने को दूर कर लिया है। ऐसा करते वक्त वे भूल जाते हैं कि विकास का चाहे जितना भी चमकदार चेहरा हो, लेकिन जब तक पेट भरा नहीं होगा विकास इंसान के चेहरे पर चमक नहीं ला सकता। देश का बेहतरीन गेहूं, आटा और सूजी उत्पादन करने वाला मध्यप्रदेश का किसान बदहाल रहेगा तो उदारीकरण के दौर के रसूखदार इंसान के लिए स्वादिष्ट रोटियां कहां से आएंगी, लजीज उपमा के लिए सूजी कहां से आएगी, लेकिन दुर्भाग्यवश इसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं है। इस तरफ ध्यान न देने वाले भूल जाते हैं कि अगर किसानों ने कमर कस ली तो ना तो उदारीकरण का चमकदार चेहरा बच पाएगा और न उदारीकरण के पैरोकार। एक जमाना था जब चुनाव में हल जोतता हुआ किसान, दो बैलों की जोड़ी, गाय बछड़ा, हलधर जैसे चुनाव चिन्ह हुआ करते थे। चौधरी चरण सिंह यह कहा करते थे कि देश की सत्ता का रास्ता गांव की गलियों और खेत की पगडंडियों से होकर गुजरता था। आम चुनाव में कृषि और किसान से जुड़े मुद्दों का शोर रहा करता था। 16वीं लोकसभा के गठन के लिए होने जा रहे चुनाव में यह सारे मुद्दे गायब हैं। यह न केवल समाज के लिए दुखद है बल्कि देश के लिए भी नुकसानदायक साबित होगा। इस बार का आम चुनाव एक दूसरे पर दोषारोपण और कीचड़ उठालने जैसे मुद्दे पर जाकर टिक गया है। निर्णय जनता को लेना है कि वह क्या पसंद कर रही है।

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