Wednesday 5 March 2014

फैसला अंतिम आदमी के हाथ में

लोकसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा के साथ एक बार फिर से भारतीय लोकतंत्र की यात्रा में वह पड़ाव आ गया है, जब करीब सवा अरब आबादी वाले देश में अस्सी करोड़ से ज्यादा मतदाता ‘भारत-भाग्य विधाताओं’ के बारे में फैसला करेंगे. बीसवीं सदी के शुरुआती साठ वर्षो तक भारतीय लोकतंत्र अपनी सफलता से दुनिया को चौंकाता रहा. दुनिया के बड़े विचारक और नेता तब यह मानने को तैयार नहीं थे कि अनपढ़ और गरीबों से भरे किसी देश में लोकतांत्रिक राज-व्यवस्था संभव भी हो सकती है. लेकिन भारत की संविधान-सभा में बैठे देश के कर्णधारों को अपने नागरिकों के विवेक पर भरपूर भरोसा था. उस वक्त संविधान-सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि हमारे अधिकतर मतदाता अनपढ़ और गरीब भले हों, लेकिन अपने विवेक से वे समाज के हक में अच्छे-बुरे का भेद समझते हैं. इन्होंने अपने ऊपर जताये गये इस भरोसे को सच करते हुए आजादी के बाद लोकतंत्र को सफल करते हुए पूरी दुनिया के विचारकों और नेताओं को चौंकाया. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में आज फिर से मतदाताओं के सामने परीक्षा की घड़ी है. अब उन्हें साबित करना होगा कि उनका विवेक आत्महित और देशहित के बीच के नाजुक संबंध को पहचानता है. अगर विवेक ने दगा किया, तो आनेवाले पांच वर्षो तक यह मलाल कायम रहेगा कि जिसे चुन कर संसद में भेजा था, वह मिट्टी का माधो निकला. दरअसल, यदि राजनीति लोगों की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरती, तो प्रश्न-चिह्न् उनके विवेक पर भी लगता है, क्योंकि अंतिम निर्णय उनके वोटों से ही निकला है. उनके लिए यह घड़ी लुभावने वादों, चमकदार चेहरों, नित नये बनते मुहावरों की सच्चाइयों को परख कर अपने क्षेत्र, प्रदेश और देश के हित में तालमेल बैठाते हुए सोलहवीं लोकसभा के गठन के लिए फैसला सुनाने का है. मतदाताओं को साबित करना होगा कि पंच-परमेश्वर के रूप में वह जाति, धर्म और क्षेत्र के दायरे से ऊपर उठ कर देशहित में फैसला सुनाता है. अत: सोलहवीं लोकसभा के गठन के लिए मतदान के लिए जायें, तो सबसे पहले यह सोचें कि आपके वोट से इस पूरे देश के भाग्य का फैसला होना है और उसके भाग्य का भी, जिसे हमारे राष्ट्रपिता ने कतार में खड़ा ‘अंतिम आदमी’ कहा है!

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