शुक्रवार को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश के मीडिया से मुखातिब हुए.
प्रधानमंत्री के तौर पर यह उनका महज तीसरा प्रेस-कांफ्रेंस था, जो यह जाहिर
करने के लिए पर्याप्त है कि वह जनता-जनार्दन से संवाद को कितनी अहमियत
देते हैं! एक ऐसे वक्त में जब देश लोकसभा चुनाव की दहलीज पर खड़ा है और
पांच राज्यों के चुनावों में जनता ने यूपीए सरकार के प्रति अपना अविश्वास
पुरजोर तरीके से जाहिर कर दिया है, अपने वक्तव्य और सवालों के जवाब के क्रम
में प्रधानमंत्री ने साबित किया कि देश की सबसे पुरानी पार्टी होने के
बावजूद कांग्रेस देश का मिजाज समझने में किसी नौसिखिये सी समझदारी का परिचय
दे रही है. कम से कम पांच दफे प्रधानमंत्री ने दोहराया कि विपक्ष और जनता
की राय भले मेरी अगुवाई में हुए काम के प्रति कड़ी रही हो, लेकिन देश का
इतिहास और इतिहासकार कहीं ज्यादा उदारतापूर्वक मेरी भूमिका का आकलन करेंगे.
अगर, राजनीति लोकधारणाओं पर आरूढ़ हो सही दिशा में सवारी करने का नाम है,
तो कहना चाहिए कि प्रधानमंत्री ने प्रेस सम्मेलन के जरिये इस धारणा पर ही
अविश्वास जताया. आश्चर्य नहीं कि प्रेस कांफ्रेंस के तुरंत बाद वरिष्ठ नेता
शरद यादव की प्रतिक्रिया आयी कि प्रधानमंत्री जनता से संवाद कायम कर पाने
में विफल साबित हुए हैं. प्रेस-कांफ्रेंस में प्रधानमंत्री ने यूपीए की
उपलब्धियां गिनवाते हुए अधिकारिता आधारित कानूनों, मसलन, आरटीआइ, आरटीइ और
मनरेगा के नाम लिये. काश उपलब्धियां गिनाते वक्त वे यह भी बताते कि आरटीइ
जिन वर्षो से लागू है, उन्हीं वर्षो में निजी स्कूलों में दाखिले का चलन
बढ़ा है. स्कूली पढ़ाई का खर्चा कई गुना बढ़ा है और स्कूली पढ़ाई कम वेतन
पानेवाले अप्रशिक्षित शिक्षकों के हवाले है. भ्रष्टाचार, महंगाई, पॉलिसी
पैरालिसिस समेत ऐसे कई सवाल थे, जिनका जवाब देश की जनता अपने प्रधानमंत्री
से चाह रही थी, लेकिन प्रधानमंत्री के पास इन सवालों पर कहने को कुछ भी नया
नहीं था. ईमानदार स्वीकारोक्ति की बात तो छोड़ ही दीजिए! प्रधानमंत्री
शायद राजनीति का यह पहला पाठ भूल गये कि सत्ता आंकड़ों के दम पर नहीं, साख
के भरोसे चलती है. प्रधानमंत्री की प्रेस-वार्ता यूपीए की साख बहाली के लिए
थी, मगर साख बहाली का संकेत दिये बगैर समाप्त हो गयी.
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