Tuesday 26 November 2013

उम्मीद की किरण का स्वागत

ईरान के परमाणु कार्यक्र म को लेकर उसके और पश्चिमी देशों के बीच हुए समझौते से पूरे विश्व ने ही राहत की सांस ली होगी। ईरान के साथ हुए अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, फ्रांस, जर्मनी, चीन और यूरोपीय संघ का यह समझौता हालांकि फिलहाल छह महीने के लिए ही है, लेकिन इससे उस तनाव के स्थायी समाधान की उम्मीद अवश्य जगी है, जिसने पिछले लगभग एक दशक से शांति के पक्षधरों की धड़कनें बढ़ा रखी थीं। दरअसल इस समझौते की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि दोनों ही पक्षों को टकराव से हट कर  संवाद के जरिये इस समस्या का स्थायी समाधान खोजने के लिए छह माह का समय मिल जायेगा। इस अवधि के लिए ईरान जहां अपने यूरेनियम  संवर्धन कार्यक्रम को सीमित करने और अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के विशेषज्ञों के साथ सहयोग के लिए सहमत हो गया है, वहीं अमेरिका समेत ये ताकतवर देश उस पर लागू प्रतिबंधों में कुछ ढील देने पर मान गये हैं। जिनेवा में चार  दिनों से भी ज्यादा चली बातचीत के बाद रविवार को इस ऐतिहासिक समझौते पर पहुंचा जा सका। परमाणु कार्यक्रम को लेकर ईरान और अमेरिका के बीच वाक्युद्ध जिस तरह तनातनी में बदल रहा था, उससे शांतिप्रिय देशों का आशंकित होना स्वाभाविक ही था। इसीलिए कुछ देशों ने दबाव बनाया कि संवाद के जरिये समाधान खोजने की कोशिश की जानी चाहिए । कहना नहीं होगा कि वह कोशिश आखिर कारगर भी साबित हुई। इस समझौते के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा भी कि इस राजनय से विश्व को और अधिक सुरक्षित बनाने का मार्ग प्रशस्त करने में सफलता मिली है। साथ ही इससे ईरान के शांतिप्रिय परमाणु कार्यक्रम की पुष्टि भी बेहतर ढंग से हो पायेगी, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वह परमाणु हथियार न बना सके। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि ईरान के विदेश मंत्री मोहम्मद जावेद जरीफ ने सफाई दी है कि उनके देश ने यूरेनियम संवर्धन का अपना अधिकार छोड़ा नहीं है, लेकिन ईरान की यह प्रतिबद्धता कि वह अपनी यूरेनियम संवर्धन क्षमता पांच प्रतिशत तक ही सीमित रखेगा, जो ऊर्जा उत्पादन के लिए तो पर्याप्त है, लेकिन उससे परमाणु बम नहीं बनाया जा सकता—निश्चय ही उसके रुख में नरमी का संकेत है। इसके अलावा ईरान अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के विशेषजों को अपने परमाणु संयंत्रों की दैनिक निगरानी के अवसर उपलब्ध कराने पर भी सहमत हो गया है। जाहिर है, परमाणु कार्यक्रम को लेकर विश्व समुदाय की चिंता और बढ़ते दबाव को ईरान ने महसूस किया है। हालांकि इस आधार पर कोई अंतिम निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी, लेकिन दोनों ही पक्षों द्वारा अपनी-अपनी हठधर्मिता छोडऩे का संवाद के जरिये समस्या के शांतिपूर्ण समाधान का मार्ग प्रशस्त होने के रूप में तो स्वागत किया ही जाना चाहिए। दरअसल भारत शुरू से ऐसे ही प्रयासों की पैरवी करता रहा है। इन प्रयासों की शुरुआती सफलता जहां भविष्य के लिए उम्मीद की किरण जगाती है, वहीं इस्राइल की प्रतिक्रिया चिंताजनक है। इस्राइल ने इस समझौते को ईरान के जाल में फंसने जैसा बताया है। बेशक अंतिम परिणति तो अभी भविष्य के गर्भ में ही है, लेकिन एक शांतिपूर्ण सकारात्मक प्रयास से जगी उम्मीद की किरण का तो स्वागत ही किया जाना चाहिए।

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