Wednesday 25 December 2013

किसके पाले में होगा मुसलमान?


2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव में अब केवल कुछ ही महीने शेष रह गए हैं। प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने तो प्रधानमंत्री पद के लिए अपने उम्मीदवार की भी घोषणा कर दी है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भाजपा के उम्मीदवार हैं जबकि संभावना जताई जा रही है कि कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी कांग्रेस की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हो सकते हैं। हालांकि कांग्रेस ने अभी तक इस बारे में कोई आधिकारिक घोषणा नहीं की है। भारत में बात जब चुनाव की हो तो मुसलमान मतदाता के बारे में अनायास ही ध्यान चला जाता है। भारत में मुसलमान लगभग 13 से 14 फीसदी हैं और लोकसभा की कई सीटों पर चुनावी फैसलों को सीधे प्रभावित करते हैं। दिल्ली की सत्ता तक पहुंचने की गंभीर दावेदारी करने वाली कोई भी पार्टी शायद उनको नजरअंदाज नहीं करना चाहेगी। इसलिए ये बहुत अहम मुद्दा है कि भारतीय मुसलमान इस समय क्या सोच रहे हैं और आने वाले चुनावों में उनका रुख क्या होगा? मुसलमानों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति जानने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस सच्चर की अध्यक्षता में बनी सच्चर कमेटी ने साल 2006 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी। उस रिपोर्ट में कहा गया था कि विकास के सभी पैमानों पर मुसलमानों की हालत देश में बेहद पिछड़ी मानी जाने वाली अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति के लगभग बराबर है। केंद्र की तत्कालीन सरकार यूपीए-1 ने इसे फौरन स्वीकार तो कर लिया लेकिन छह-सात साल के गुजर जाने के बाद जितनी भी रिपोर्ट आई हैं, उन सभी का मानना है कि मुसलमानों की हालत में कोई खास सुधार नहीं हुआ है। सितंबर 2013 में काउंसिल फॉर सोशल डेवेलपमेंट (सीएसडी) की तरफ से जारी एक रिपोर्ट के अनुसार अल्पसंख्यकों के लिए बनाई गई सरकारी योजनाओं का ज्यादातर लाभ या तो बहुसंख्यक समाज के लोग या गैर-मुसलमान अल्पसंख्यक समाज के लोग उठा रहे हैं। सीएसडी की रिपोर्ट के मुताबिक 25 फीसदी से अधिक मुसलमान जनसंख्या वाले देश के जिन 90 जिÞलों में एमएसडीपी कार्यक्रम की शुरूआत की गई थी, उन इलाकों में केवल 30 फीसदी मुसलमानों तक इन योजनाओं का लाभ पहुंचा। बात सिर्फ सच्चर कमेटी की सिफारिशों की नहीं है, दूसरे कई मामलों में भी मुसलमानों को लगता है कि यूपीए सरकार ने बीते नौ सालों में उनके लिए कुछ खास नहीं किया है। जमीयतुल-उलमा-ए-हिंद के महासचिव महमूद मदनी कहते हैं कि यूपीए सरकार से मुसलमानों को दो नुकसान हुए हैं। मदनी कहते हैं कि एक नुकसान तो ये हुआ कि काम नहीं किया। उससे बड़ा नुकसान ये किया कि कामों का ऐलान करके मुसलमानों के तुष्टीकरण का इल्जाम अपने ऊपर ले लिया और मुसलमानों का कोई फायदा भी नहीं किया। अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री के रहमान खान कहते हैं कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर सरकार ने कुल 72 सिफारिशें चुनी थीं। उनमें से तीन को नहीं माना गया जो कुछ खास नहीं थी। बाकी 69 में से सरकार ने 66 को लागू कर दिया है और केवल तीन सिफारिशों पर अमल किया जाना बाकी है। अल्पसंख्यकों के लिए चलाई जा रही योजनाओं की जांच के लिए अल्पसंख्यक मंत्रालय ने एक कमेटी का इसी साल गठन किया है। उम्मीद है कि उसकी रिपोर्ट साल 2014 के शुरूआती महीनों में आएगी।

Thursday 12 December 2013

आलाकमान की परीक्षा का वक्त

कांग्रेस की सियासी नैया में दरार आने की खबरों के साथ ही पार्टी में आत्ममंथन और बड़े बदलाव की मांग के स्वर तेज होने लगे हैं. मध्य प्रदेश से कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी का कहना है कि पार्टी आलाकमान चाटुकारों से घिरा हुआ है. पार्टी में उन्हें ही प्रमुखता दी जाती है. खरी-खरी बातें करनेवालों को अनसुना किया जाता है. वरिष्ठ पार्टी नेता मणिशंकर अय्यर का मानना है कि अगर पार्टी में राजीव गांधी की संकल्पना के मुताबिक बदलाव नहीं किया गया, तो उसे आगे भी हार का मुंह देखना पड़ सकता है. कांग्रेस में जहां आलाकमान के खिलाफ कुछ बोलने या सार्वजनिक रूप से उसे कोई राय देने की परंपरा कम-से-कम हाल के वर्षो में नहीं देखी गयी है, पार्टी नेताओं के इन बयानों को एक नजर में गांधी परिवार के रुतबे में हुए क्षरण का पहला महत्वपूर्ण संकेत माना जा सकता है. लेकिन सवाल सिर्फ एक परिवार के रुतबे का नहीं, इससे कहीं आगे का है. सवाल सवा सौ वर्ष पुरानी राजनीतिक पार्टी को पुनर्जीवित करने का है. सवाल है, जैसा कि सोनिया गांधी ने भी कहा, कि आखिर पार्टी जनता के मूड को समझने में नाकाम क्यों रही? पहले उत्तर प्रदेश और अब चार राज्यों में कांग्रेस की करारी शिकस्त ने दिखाया है कि पार्टी संगठन का प्रशासन जिस तरह से किया जा रहा है, वह न तो जनता में यकीन जगा पा रहा है, न ही कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार कर रहा है. पिछले काफी अरसे से जिस तरह से कांग्रेस को नेतृत्व दे रहा गांधी परिवार ‘जीत का सेहरा मेरे सिर, हार का ठीकरा तुम्हारे सिर’ के सिद्धांत पर चल रहा है, वह राजनीति की पहली जरूरत- जवाबदेही के खिलाफ जाता है. सामान्य समझदारी कहती है कि अगर यूपीए सरकार के खिलाफ लगे आरोपों और उसकी असफलताओं पर कांग्रेस आलाकमान ने उचित समय पर संज्ञान लिया होता, तो कांग्रेस की स्थिति शायद कुछ बेहतर होती. पर, आलाकमान पूरी दुनिया को दिख रहे सच से आंखें मूंदे रहा. पिछले वर्षो में कांग्रेस ने जो राजनीतिक जमीन गंवायी है, उसे पार्टी ढांचे में व्यापक सुधार करके ही हासिल किया जा सकता है. यह वक्त पार्टी संगठन में बड़े पैमाने पर बदलाव और हिम्मती फैसले लेने का है. इसकी शुरुआत शीर्ष नेतृत्व की जवाबदेही तय करने से हो सकती है.

Wednesday 11 December 2013

अति पिछड़ों पर सियासत



उत्तर प्रदेश में अति पिछड़ी जातियों पर राजनीति गरमाने लगी है। ऐसी ही 17 जातियों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल कराने के लिए प्रदेश की दो धुर विरोधी समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी ने संसद को ही सिर पर उठा रखा है। सपा ने बुधवार को दोनों ही सदनों में इसी मुद्दे पर सरकार के जवाब की मांग को लेकर भारी हंगामा किया। राज्यसभा में तो सिर्फ इसी मुद्दे पर हंगामे के चलते कार्यवाही ही नहीं चल सकी। शोर-शराबे में बसपा भी पीछे नहीं रही। बाद में, सपा प्रमुख मुलायम सिंह ने संसद भवन परिसर में पत्रकारों से कहा कि उत्तर प्रदेश की कहार, कश्यप, केवट, मल्लाह, निषाद, कुम्हार, प्रजापति, धींवर, विंद, भर, राजभर, बाथम, तुरहा, गौड़, मांझी और मछुआ जातियों की स्थिति बहुत खराब है। उन्हें अनुसूचित जाति में शामिल कराने के लिए प्रदेश के मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री व केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री को पत्र लिख चुके हैं। फिर भी केंद्र ने अब तक कुछ नहीं किया है। मुलायम के बाद बसपा प्रमुख मायावती ने कहा कि इन पिछड़ी 17 जातियों की समस्या की जड़ ही सपा है। उसके चलते ही ये जातियां उन सुविधाओं से भी वंचित हो गईं, जो उन्हें पहले मिलती थीं। बसपा ने अपनी पिछली सरकार में उन्हें अनुसूचित जाति में शामिल कराने की पहल की थी और अब इस मुद्दे को संसद में उठा रही है। इससे पहले, राज्यसभा में कार्यवाही पर सिर्फ यही मुद्दा हावी रहा। सदन की कार्यवाही शुरु होते ही सपा संसदीय दल के नेता प्रो. रामगोपाल यादव व मुख्य सचेतक नरेश अग्रवाल अपनी जगह पर खड़े होकर प्रदेश की 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति की सूची में शामिल कराने के लिए सरकार से जवाब देने की मांग करने लगे। जबकि पार्टी के दूसरे सदस्य अरविंद कुमार सिंह, आलोक तिवारी, चौधरी मुनव्वर सलीम सभापति के आसन के पास जाकर नारेबाजी करने लगे। उसी समय बसपा के ब्रजेश पाठक, मुनकाद अली, अवतार सिंह करीमपुरी व दूसरे सदस्य सभापति के आसन के दूसरी तरफ आकर इसी मुद्दे पर नारेबाजी करने लगे। यही सिलसिला 11 बजे, 12 बजे और फिर दो बजे दोहराया गया। उसके बाद सदन की कार्यवाही पूरे दिन के लिए ही स्थगित कर दी गई।उधर, लोकसभा में सपा संसदीय दल के नेता मुलायम सिंह यादव व मुख्य सचेतक शैलेंद्र कुमार की अगुवाई में पार्टी सदस्यों ने इस मुद्दे पर सरकार से जवाब के लिए शोर-शराबा व नारेबाजी की। जबकि, बसपा सदस्य मुजफ्फरनगर के दंगा राहत शिविरों में 40 बच्चों की मौत का मामला उठाने लगे। उसी दौरान आंध्र के सांसद सीमांध्र को बचाने तो डीएमके सांसद तमिल मछुवारों के मुद्दे उठाने लगे। शोर-शराबा न थमने पर सदन की कार्यवाही दिन भर के लिए ही स्थगित कर दी गई।

Monday 9 December 2013

प्रमोद तिवारी हो सकते हैं राज्यसभा उम्मीदवार

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता प्रामोद तिवारी उत्तर प्रदेश की रिक्त पड़ी राज्यसभा की एक सीट के लिए उम्मीदवार हो सकते हैं। अगर सबकुछ ठीक रहा तो मंगलवार को वह अपना नामांकन दाखिल करेंगे। राज्यसभा की दो सीटें रिक्त थी, जिसमें एक सीट पर सोमवार को मोहन सिंह की बेटी कनकलता ने नामांकन दाखिल कर दिया। मंगलवार को नामांकन की अंतिम तिथि है। 13 दिसंबर को नाम की वापसी होगी और 20 दिसंबर को चुनाव की तिथि निर्धारित है। माना जा रहा है कि दोनों सीटों पर निर्वाचन निर्विरोध हो जायेगा। दोनों उम्मीदवारों को समाजवादी पार्टी राज्यसभा भेजना चाह रही है। इसमें से मोहन सिंह की बेटी को तो खुद सपा ने ही उम्मीदवार बनाया है।

सपा सुप्रीमों निराश!


सेमीफाइनल में खाता न खुलने से सपा सुप्रीमों निराश!

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में खाता न खुलने से समाजवादी पार्टी (सपा) अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव को काफी निराशा हुई है, क्योंकि इन चुनावों को 2014 के आम चुनाव का सेमीफाइनल कहा जा रहा था, और मुलायम केंद्र में तीसरे मोर्चे की सरकार का ताना-बाना बुन रहे थे। खुद को तीसरे मार्चे के अगुवा के तौर पर प्रस्तुत कर बार-बार आगामी लोकसभा चुनाव में तीसरे विकल्प की सरकार के सत्ता में आने का दावा कर रही सपा मध्य प्रदेश और राजस्थान में गैर कांग्रेसी और गैर भाजपाई दलों के साथ गठबंधन करके चुनाव मैदान में उतरी थी, लेकिन उसे नाकामी हाथ लगी। सपा के प्रदेश प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने कहा कि विधानसभा चुनाव के नतीजे चिंता और चिंतन का विषय हैं। लेकिन कांग्रेस से नाराजगी का लाभ जिन दलों ने उठाया है वे यह न भूलें कि जनता ने उनको स्वीकारा नहीं है बल्कि कांग्रेस को हटाया है। मध्य प्रदेश में जहां सपा ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा), मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा), समानता दल से गठजोड़ किया था तो राजस्थान में उसने जनता दल (सेक्युलर), जनता दल(युनाइटेड), भाकपा और माकपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा था। राजस्थान में सपा ने समझौते के तहत 50 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे तो मध्य प्रदेश में 190 सीटों पर, लेकिन दोनों जगहों पर सपा अपनी सीटों में इजाफा करना तो दूर बल्कि पिछला प्रदर्शन भी नहीं दोहरा सकी। 2008 में इन दोनों राज्यों में सपा को एक-एक सीट पर जीत मिली थी। समाजवादी पार्टी तीसरे मोर्चे की हालत पतली होने का ठीकरा कांग्रेस के सिर मढ़ रही है। सपा का कहना है कि कांग्रेस की खराब नीतियों के चलते साम्प्रदायिक ताकतों को उभार मिला। राजेंद्र चौधरी ने कहा कि कांग्रेस की कुनीतियों के चलते राज्यों में भाजपा को जीत मिली। लोकसभा चुनाव में जनता भाजपा-कांग्रेस को भाव न देकर नए राजनीतिक विकल्प को सत्ता सौंपने का काम करेगी। सपा निराश नहीं है।

Friday 6 December 2013

नियति का मालिक, आत्मा का महानायक


नेल्सन मंडेला जिस कविता को बहुत संभालकर रखते थे और बारबार पढ़ते थे, चुनौती और मुश्किल के हर पल में, उसका नाम 'इन्विक्टस' है.
लैटिन शब्द 'इन्विक्टस' का अर्थ अपराजेय है. 'इन्विक्टस' विक्टोरियन युग की 1875 में प्रकाशित है. इसे ब्रिटिश कवि विलियम अर्नेस्ट हेनली ने लिखी थी. ' इस फ़िल्म का नाम भी है, जो मंडेला पर बनी थी. इसमें वे राष्ट्रपति बनने के बाद अपने देश की रग्बी टीम को जीतने के लिए प्रेरित करते हैं. इस फ़िल्म के ज्यादातर सदस्य श्वेत हैं. उसका हिंदी अनुवाद कुछ इस तरह है.
नरक के अंधेरे की तरह घुप काले में
जिस रात ने मुझे लपेट कर रखा है
शुक्रगुज़ार हूं उस जो भी ईश्वर का
अपनी अपराजेय आत्मा के लिए
परिस्थियों के शिकंजे में फंसे होने के
बाद भी मेरे चेहरे पर न शिकन है
और न कोई ज़ोर से कराह
वक़्त के अंधाधुंध प्रहारों से
मेरा सर खून से सना तो है, पर झुका नहीं
क्रूरता और आंसुओं की इस जगह के पार
मौत के गहराते सायों के बाद भी
और साल-दर-साल की यंत्रणाएं
पाती हैं, और पाएंगी मुझे निर्भीक
इससे फ़र्क नहीं कि दरवाज़ा कितना संकरा है
और मेरे खिलाफ़ सज़ाओं की फ़ेहरिस्त कितनी लम्बी
मैं हूं अपनी नियति का मालिक
मैं हूं, अपनी आत्मा का महानायक

मंडेला: सफल नेता का असफल परिवारिक जीवन


एवेलिन
नेल्सन मंडेला की पहली पत्नी एवेलिन.
नस्ल भेद पर जीत ने नेल्सन मंडेला को दुनिया भर में एक उम्मीद का प्रतीक बना दिया था लेकिन राजनीति के लिए प्रतिबद्धता अकसर उनके परिवारिक जीवन को हानि पहुंचाती रही.मंडेला की पहली पत्नी एवेलिन एक नर्स थी और वो उनके राजनीतिक सहयोगी और भविष्य में जेल के सहयात्री बनने वाले एएनसी नेता वॉल्टर सिसुलु की बहन भी थीं. मंडेला ने बाद में एवेलिन को ‘एक चुप रहने वाली ख़ूबसूरत ग्रामीण लड़की कहा.’ दोनों ने वर्ष 1944 में शादी कर ली.उनके चार बच्चे हुए लेकिन ये शादी मंडेला के राजनीतिक दायित्वों और प्रेम संबंधों के कारण जल्दी डांवाडोल हो गई. एक बार एवेलिन ने मंडेला के प्रेम संबंधों से तंग आकर उनपर खौलता हुआ पानी फेंकने की धमकी तक दे डाली थी.

कारावास

उधर मंडेला एवेलिन की धार्मिक प्रतिबद्धता से सहमत नहीं थे. ये शादी 1950 के दशक में टूट गई. एवेलिन ने बाद में दोबारा शादी कर ली. उनकी मौत वर्ष 2004 में हुई. एवेलिन हमेशा कहती थीं, “सारी दुनिया नेल्सन की ज़्यादा ही अराधना करती है. वो एक आदमी ही तो है.” चार दशकों से मंडेला ट्रांसकेई की एक ख़ूबसूरत युवा सामाजिक कार्यकर्ता विनिफ़्रेड माडिकिज़ेला को चाहते रहे थे. दोनों ने 1958 में शादी की थी. दोनों की पारंपरिक वैवाहिक ज़िंदगी काफ़ी छोटी साबित हुई. शादी के बाद मंडेला भूमिगत हो गए और फिर पकड़े जाने पर जेल भेज दिए गए. विनी मंडेला के पति जेल में रहने के बावजूद एक दिग्गज बन गए थे. बाहर विनी मंडेला पहले नेल्सन मंडेला से जुड़े होने के कारण और बाद में अपने बूते पर नस्लभेद के ख़िलाफ़ एक प्रतीक बन गईं.
उन्हें राष्ट्रमाता कहा जाने लगा.

विनी रिहा

नेल्सन और विनी मंडेला
नेल्सन मंडेला ने 1958 में विनी मंडेला से शादी की.
जब उनके पति शांतिपूर्ण सहयोग की रणनीति विकसित करने में लगे थे, विनी मंडेला नज़रबंदी, उत्पीड़न और नियमित रूप से जेल का सामना कर रही थीं. इन कारणों से विनी लगातार झगड़ालू बनती गईं. उन्होंने अपने ईर्द-गिर्द विवादास्पद सहयोगियों और अंगरक्षकों को जमा कर लिया. उनके शुरू किए गए ‘मंडेला यूनाइटेड फ़ुटबॉल क्लब’ का मक़सद नौजवानों को व्यस्त रखना था लेकिन उल्टे इसपर कई हत्याओं और अपहरणों के आरोप लगे. फ़रबरी 1991 में विनी पर 1988 में एक स्कूली छात्र स्टोंपी सेइपेई मोकेत्सी की हत्या का मुक़दमा चला. पूरे मुक़दमें के दौरान नेल्सन मंडेला अपनी पत्नी के साथ खड़े रहे लेकिन विनी के बरी होते ही दोनों ने अलग होने का निर्णय कर लिया. वर्ष 1997 में ‘ट्रुथ ऐंड रिकंसिलेशन कमीशन’ की सुनवाई के दौरान विनी मंडेला स्टोंपी हत्याकांड पर अपनी राय पर क़ायम रहीं लेकिन बाद में आर्चबिशप डेसमंड टुटु के कहने पर उन्होंने एक अस्पष्ट-सी माफ़ी कुछ यूं कहते हुए मांगी – ‘वो दर्दनाक वर्ष थे जब बहुत कुछ बुरी तरह गड़बड़ा गया था.’ जब मंडेला राष्ट्रपति बने तो उन्होंने अपनी पत्नी को कैबिनेट में जगह दी. लेकिन जल्दी ही पार्टी के पैसे के इस्तेमाल को लेकर विनी मंडेला पर सवाल उठने लगे और वर्ष 1996 में दोनों में तलाक हो गया. नेल्सन मंडेला के राष्ट्रपति काल के शुरूआती दिनों में उनकी प्यारी बिटिया ज़िंज़ी उनके साथ खड़ी रहीं.
हांलाकि ज़िंज़ी ने कई विदेशी दौरों पर अपने पिता का प्रतिनिधित्व किया लेकिन देश के भीतर उन्हें विवादों का सामना करना पड़ा.

ज़िंज़ी स्कैंडल

ग्रासा ओर नेल्सन मंडेला
मंडेला ने तीसरी शादी ग्रासा मशेल से 1998 में की.
वर्ष 2003 में जोहानेसबर्ग की एक अदालत ने ज़िंज़ी और उनके पति को एक बैंक के छह लाख अमरीकी डॉलर लौटाने का आदेश दिया. उन्होंने ये पैसे एक रॉक कंसर्ट के आयोजन के लिए उधार लिए थे.
मंडेला ख़ुद कहते थे, “ जब आपका जीवन ही संघर्ष हो तो परिवार के लिए बहुत कम समय मिलता है. ये मेरे जीवन का सबसे बड़ा दुख रहा है.” वर्ष 1998 में अपने 80वें जन्मदिवस पर मंडेला ने तीसरी बार शादी की.
इसबार उनकी पसंद थी मोज़ाम्बिक के पूर्व राष्ट्रपति समोरा मसेल की विधवा ग्रासा मसेल. समोरा मसेल 1986 में एक हवाई दुर्घटना में मारे गए थे. ऐसी अफ़वाहें थीं कि ये हवाई दुर्घटना दक्षिण अफ़्रीकी नस्लभेदी प्रशासन के एजेंटों ने करवाई थी. ग्रासा मसेल अकसर कहती हैं कि उन्होंने ‘किसी दिग्गज नहीं एक आदमी से शादी की है’. वो कहतीं, “ मैं उन्हें एक इंसान के रूप में चाहती हूं. वो एक प्रतीक हैं लेकिन संत नहीं. ”

अब वो हमारे नहीं रहे, युगों के हो गए


दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति जैकब जूमा ने जैसे ही नेल्सन मंडेला के निधन की घोषणा की, न सिर्फ दक्षिण अफ्रीका में बल्कि पूरी दुनिया में शोक की लहर दौड़ गई. कहा जा रहा है कि अब शायद ही कोई नेता हो जिसके लिए पूरी दुनिया में इस तरह से शोक मनाया जाए और श्रद्धांजलियां बरसें.नेल्सन मंडेला के निधन की खबर देते हुए जैकब जूमा ने कहा, "हमारी जनता ने अपने पिता को खो दिया है. हालांकि हम जानते थे कि ये दिन आना ही है, लेकिन हमारे इस नुकसान की भरपाई किसी भी तरह से नहीं की जा सकती है. हमारी सहानुभूति और प्रार्थना मंडेला परिवार के साथ है."
अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने वाइट हाउस से जारी संदेश में कहा कि आज दुनिया ने सबसे ज़्यादा प्रभावशाली, साहसी और अच्छे इंसानों में से एक को खो दिया है जिनके साथ इस लोंगो को पृथ्वी पर वक़्त गुज़ारने का मौका मिला. उनका कहना था, "वो अब हमारे नहीं रहे, युगों के हो गए हैं." मंडेला अपनी कामयाबी का श्रेय हमेशा दूसरों को देते थे. बराक ओबामा ने कहा कि मंडेला की क़ैदी जीवन से राष्ट्रपति तक की यात्रा ने उस विश्वास को जन्म दिया है कि लोग और देश बदल सकते हैं अच्छाई के लिए. ओबामा का कहना था, "मैं उन करोड़ों लोगों में से हूं जिन्हें मंडेला की ज़िंदगी ने प्रेरित किया. मेरी ज़िंदगी का पहली राजनीतिक विरोध प्रदर्शन रंगभेद के ख़िलाफ़ था. मैं जब तक ज़िंदा रहूंगा मंडेला की जिंदगी से सीखने की कोशिश करता रहूंगा."

नामुमकिन कुछ नहीं

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून ने अपने शोक संदेश में कहा है कि नेल्सन मंडेला ने दुनिया को दिखाया कि अगर सब एक साथ मिलकर ख़्वाब देखें, इंसाफ़ और इंसानियत के लिए एकजुट होकर काम करें तो कुछ भी नामुमकिन नहीं है. बान की मून ने 2009 में मंडेला के साथ हुई अपनी मुलाक़ात को याद करते हुए कहा कि जब उन्होंने मंडेला को उनकी कर्बानियों के लिए धन्यवाद दिया तो मंडेला ने बस इतना ही कहा कि इसका श्रेय दूसरों को जाता है. अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने कहा है कि दुनिया ने आज अपने सबसे अहम नेताओं में से एक और एक अच्छे इंसान को खो दिया है.

बेहतरीन मिसाल

क्लिंटन का कहना था, "इतिहास उन्हें इंसानी मर्यादा और आज़ादी के लिए लड़ने वाले चैंपियन की तरह याद करेगा. विरोधियों को भी गले लगाना उनकी राजनीतिक रणनीति नहीं उनकी ज़िंदगी का एक अंदाज़ था."
पूर्व राष्ट्पति जॉर्ज डब्ल्यू बु‏श ने मंडेला को याद करते हुए कहा कि उन्होंने जो मिसाल कायम की उसकी वजह से आज दुनिया एक बेहतर जगह है. बुश का कहना था, "हम उस अच्छे इंसान की कमी महसूस करेंगे लेकिन उनका जो योगदान था वो हमेशा ज़िंदा रहेंगे."
अफ़्रीका में एड्स के ख़िलाफ़ लंबे समय से मुहिम चला रहे बिल गेट्स और मेलिंडा गेट्स ने कहा है कि वो जब भी नेल्सन मंडेला से मिले ग़रीबों की ज़िंदगी सुधारने के लिए एक नए उत्साह और जोश के साथ लौटे.
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने मंडेला के निधन पर शोक जताते हुए कहा है:" दुनिया से एक बड़ी रोशनी ख़त्म हो गई है. वो हमारे समय के नायक थे."

...जिसने नस्लभेद को मिटा दिया


शार्पविले नरसंहार
शार्पविले में हुए नरसंहार की दुनिया भर में आलोचना हुई थी.
वर्ष 1964 में जेल जाने के बाद नेल्सन मंडेला विश्व भर में नस्लभेद के ख़िलाफ़ संघर्ष के एक प्रतीक बन गए. लेकिन नस्लभेद के ख़िलाफ़ उनका विरोध इससे कई साल पहले शुरू हो चुका था.बीसवीं सदी के ज़्यादातर हिस्से में दक्षिण अफ़्रीका में नेशनल पार्टी और डच रिफ़ॉर्म चर्च का बोलबाला था. उनका सिद्धांत ‘अफ़्रीकनर’ ढंग से बाइबल को पढ़ने और बोएर लोगों की सत्ता में भूमिका निभाने पर आधारित था.
नस्लभेद यानि ‘एपरथाइड’ की जड़ें दक्षिण अफ़्रीका में यूरोपीय शासन के शुरूआती दिनों से ही मौजूद थीं. लेकिन 1948 में नेशनल पार्टी की पहली सरकार के सत्ता में आने के बाद नस्लभेद को क़ानूनी दर्जा दे दिया गया. इस चुनाव में सिर्फ़ श्वेत लोगों ने ही मत डाले थे.

नस्लभेद के तीन स्तंभ

क़ानूनी तौर पर नस्लभेद के तीन स्तंभ थे:
  • रेस क्लासिफ़िकेशन एक्ट – हर उस नागरिक का वर्गीकरण जिस पर ग़ैर-यूरोपीय होने का संदेह.
  • मिक्स्ड मैरिज एक्ट – अलग-अलग नस्ल के लोगों के बीच विवाह पर प्रतिबंध
  • ग्रुप एरियाज़ एक्ट – कुछ तय नस्ल के लोगों को सीमित इलाक़ों में रहने के लिए बाध्य करना
अश्वेत लोगों के अधिकारों के लिए अफ़्रीकन नेशनल कांग्रेस यानि एएनसी की स्थापना 1912 में हो गई थी. नेल्सन मंडेला इस संस्था से 1942 में जुड़े. नौजवान, समझदार और बेहद प्रेरित युवाओं के समूह के साथ मिलकर मंडेला, वॉल्टर सिसुलु और ऑलिवर टेंबो ने धीरे-धीरे एएनसी को एक राजनीतिक जन आंदोलन में परिवर्तित करना शुरू किया. नेशनल पार्टी की सरकार के क़दमों पर एएनसी का जवाब समझौता न करने वाला था. वर्ष 1949 में तय हुए ‘कार्रवाई के कार्यक्रम’ के अनुसार श्वेत लोगों के आधिपत्य को समाप्त करने के लिए बहिष्कार, हड़ताल, नागरिक अवज्ञा और असहयोग का आह्वान किया गया. इसी समय एएनसी के पुराने चेहरों को हटाकर नए नेतृत्व ने कमान संभाली. वॉल्टर सिसुलु नए महासचिव बने और मंडेला पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारी समिति में शामिल हुए.

नेल्सन मंडेलाः एक युग का अंत


नेल्सन मंडेला
दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला का निधन हो गया है. वे 95 साल के थे.नेल्सन मंडेला दुनिया के बेहतरीन राजनेताओं में शुमार किए जाते थे.उन्होंने दक्षिण अफ़्रीका में रंगभेदी सरकार की जगह एक लोकतांत्रिक बहुनस्ली सरकार बनाने के लिए लंबा संघर्ष किया और इसके लिए वे 27 साल तक जेल में रहे.देश के पहले काले राष्ट्रपति का पद संभालते हुए उन्होंने कई अन्य संघर्षों में भी शांति बहाल करवाने में अग्रणी भूमिका निभाई. उन्हें 1993 में नोबेल शांति पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया.

नेल्सन मंडेला से जुड़ी प्रमुख तिथियां

  • 1918 पूर्वी केपटाउन में जन्म
  • 1943 अफ्रीकी नेशनल कॉन्ग्रेस से जुड़े
  • 1956 देशद्रोह का आरोप लगा, लेकिन बाद में ये वापस ले लिया गया
  • 1962 गिरफ़्तार हुए, तोड़-फोड़ का दोषी पाया गया. पांच साल कैद
  • 1964 दोबारा दोषी पाए गए, आजीवन कारावास की सज़ा
  • 1990 जेल से छूटे
  • 1993 शांति के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित
  • 1994 पहले काले राष्ट्रपति चुने गए
  • 1999 नेता के रूप में पद छोड़ दिया.
  • 2004 सार्वजनिक जीवन से अवकाश
जिन लोगों ने उन्हें जेल में बंद रखा, यातनाएं दीं उनके प्रति भी उन्होंने कोई कड़वाहट नहीं दिखाई.
वे हमेशा खुशमिजाज़ नज़र आए और उनके व्यक्तित्व और ज़िंदगी की कहानी ने पूरी दुनिया को रिझाया.
पांच साल राष्ट्रपति बने रहने के बाद 1999 में उन्होंने कुर्सी छोड़ी और दक्षिण अफ़्रीका के सबसे प्रभावशाली राजनयिक साबित हुए. उन्होंने एचआईवी और एड्स के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ी और दक्षिण अफ़्रीका के लिए 2010 के फ़ुटबॉल विश्व कप की मेज़बानी हासिल करने में भी उनकी भूमिका रही. मंडेला कॉंगो, बुरूंडी और अफ़्रीका के अन्य देशों में शांति बहाल करने की प्रक्रिया में भी शामिल रहे. साल 2001 में उन्हें पता चला कि उन्हें प्रोस्टेट कैंसर है और 2004 में उन्होंने सार्वजनिक ज़िंदगी से ये कहकर संन्यास लिया कि वो अपने परिवार और दोस्तों के साथ ज़्यादा समय बिताना चाहते हैं और 'आत्मचिंतन' में वक्त लगाना चाहते हैं.
कार्यक्रमों और समारोहों के लिए न्योता भेजनेवालों के लिए उन्होंने संदेश दिया, "आप मुझे फ़ोन मत कीजिएगा, मैं आपको फ़ोन कर लूंगा."

राजसी बचपन

नेल्सन मंडेला
1918 में ईस्टर्न केप ऑफ़ साऊथ अफ़्रीका के एक छोटे से गांव में हुआ. वो मदीबा कबीले से थे और दक्षिण अफ़्रीका में उन्हें अक्सर उनके कबीले के नाम यानी 'मदीबा' कहकर बुलाया जाता था. उनके कबीले ने उनका नाम रोलिहलाहला दालिभंगा रखा था लेकिन उनके स्कूल के एक शिक्षक ने उनका अंग्रेज़ी नाम नेल्सन रखा.
उनके पिता थेंबू राज परिवार में सलाहकार थे और जब उनकी मृत्यु हुई तो नेल्सन मंडेला नौ साल के थे.
उनका बचपन थेंबू कबीले के मुखिया जोंगिनताबा दलिनदयाबो की देखरेख में बीता. वो 1943 में अफ़्रीका नैशनल कांग्रेस से जुड़े, पहले एक कार्यकर्ता के तौर पर और फिर उसकी युवा शाखा के संस्थापक और अध्यक्ष के तौर पर. और फिर सालों तक जेल में बंद रहने के बाद वो अफ़्रीकी नेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष भी बने.

भूमिगत

"मेरी कल्पना एक ऐसे लोकतांत्रिक और मुक्त समाज की है जहां सभी लोग सौहार्दपूर्वक तरीके से रहें और जिन्हें बराबरी का मौका मिले. ये वो सोच है जिसे हासिल करने के लिए मैं जीना चाहता हूं. लेकिन अगर ज़रूरत पड़ी तो इसके लिए मैं मरने को भी तैयार हूँ."
                                                                                                                                नेल्सन मंडेला
उनकी पहली शादी 1944 में हुई और इस शादी से उनके तीन बच्चे हुए. तेरह सालों बाद उनका तलाक़ हो गया.
उन्होंने क़ानून की शिक्षा ली और 1952 में जोहानेसबर्ग में अपने दोस्त ओलिवर टैंबो के साथ वकालत की शुरूआत की. इन दोनों ने रंगभेदी नीतियों के ख़िलाफ़ अभियान चलाया. चार सालों के बाद 1956 में उनपर अन्य 155 लोगों के साथ देशद्रोह का आरोप लगाया गया लेकिन चार सालों तक चली सुनवाई के बाद फिर उन्हें आरोपमुक्त कर दिया गया. रंगभेद के ख़िलाफ़ संघर्ष में तेज़ी आने लगी थी ख़ासकर उस क़ानून का जमकर विरोध हो रहा था जो तय करता था कि काले लोग कहां रह सकते हैं और कहां काम कर सकते हैं. उन्होंने 1958 में विनि मादिकिज़ेला से शादी की जिन्होंने उन्हें जेल से छुड़ाने के अभियान में सक्रिय भूमिका निभाई. अफ़्रीकी नेशनल कांग्रेस को 1960 में प्रतिबंधित संगठन घोषित कर दिया गया और मंडेला भूमिगत हो गए.
रंगभेदी सरकार के साथ तनाव और बढ़ा जब 1960 में 69 काले लोग पुलिस की गोलियों का शिकार बनाए गए. उसे शार्पविल हत्याकांड के नाम से जाना गया.

उम्र क़ैद

विनी और नेल्सल मंडेला
उस घटना ने शांतिपूर्ण संघर्ष पर विराम लगा दिया और मंडेला ने भी आर्थिक भीतरघात का अभियान शुरू किया.
उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और उनपर भीतरघात और हिंसक तरीकों से तख़्तापलट का आरोप लगा.
रिवोनिया की अदालत में अपना बचाव खुद करते हुए मंडेला ने लोकतंत्र, आज़ादी और बराबरी पर अपने विचार दुनिया के सामने रखे. उन्होंने कहा, "मेरी कल्पना एक ऐसे लोकतांत्रिक और मुक्त समाज की है जहां सभी लोग सौहार्दपूर्वक रहें और जिन्हें बराबर का मौका मिले." उन्होंने कहा, "ये वो सोच है जिसे हासिल करने के लिए मैं जीना चाहता हूं. लेकिन अगर ज़रूरत पड़ी तो इसके लिए मैं मरने को भी तैयार हूं." उन्हें 1964 के जाड़े में उम्र क़ैद सुनाई गई. बारह महीनों के अंतराल में 1968 और 1969 के बीच उनकी मां की मृत्यु हो गई और उनका सबसे बड़ा बेटा कार दुर्घटना में मारा गया लेकिन उन्हें उनके अंतिम संस्कार में भाग लेने की भी इजाज़त नहीं दी गई.

अंतरराष्ट्रीय अभियान

"विश्व समुदाय ने रंगभेदी दक्षिण अफ़्रीकी सरकार पर 1967 में लगाए गए प्रतिबंधों को और कड़ा कर दिया. दबाव का असर ये हुआ कि 1990 में राष्ट्रपति एफ़ डब्ल्यू डी क्लार्क ने अफ़्रीकी नैशनल कांग्रेस पर लगे प्रतिबंध को हटा लिया और मंडेला को भी जेल से रिहा कर दिया गया."
रॉबेन आइलैंड पर वो 18 साल तक जेल में बंद रहे और फिर 1982 में उन्हें पॉल्समूर जेल में स्थानांतरित कर दिया गया. जिस दौरान मंडेला और उनके साथी जेल में बंद थे दक्षिण अफ़्रीका के काले-बहुल शहरों के नौजवान श्वेत अल्पमत सत्ता के ख़िलाफ़ जूझते रहे. सैंकड़ों मारे गए और हज़ारों घायल हो गए जब स्कूली बच्चों के इस आंदोलन को कुचला गया. मंडेला के वकील दोस्त टैंबो ने 1980 में उनकी रिहाई के लिए अंतरराष्ट्रीय अभियान की शुरूआत की. विश्व समुदाय ने रंगभेदी दक्षिण अफ़्रीकी सरकार पर 1967 में लगाए गए प्रतिबंधों को और कड़ा कर दिया. दबाव का असर ये हुआ कि 1990 में राष्ट्रपति एफ़ डब्ल्यू डी क्लार्क ने अफ़्रीकी नैशनल कांग्रेस पर लगे प्रतिबंध को हटा लिया और मंडेला को भी  कर दिया गया.

राष्ट्रपति मंडेला

नेलसन मंडेला के लिए समर्थन
दिसंबर 1993 में नेल्सन मंडेला और एफ़ डब्ल्यू डी क्लार्क को नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया. पाँच महीनों के बाद दक्षिण अफ़्रीका के इतिहास में पहली बार लोकतांत्रिक चुनाव हुए और सभी नस्लों के लोगों ने उसमें मतदान किया. नेल्सन मंडेला राष्ट्रपति चुने गए. राष्ट्रपति के रूप मे उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती बनी ग़रीबों के लिए घरों का इंतज़ाम. दक्षिण अफ़्रीका के बड़े बड़े शहरों में स्लम और झोपड़पट्टियों की बस्तियां नज़र आती रहीं. उन्होंने अपने सहयोगी थाबो अंबेकी पर सरकार की प्रशासनिक ज़िम्मेदारियां डालीं और अपना ध्यान दक्षिण अफ़्रीका की नई छवि को दुनिया के सामने पेश करने पर लगाया. इस के तहत वो देश की बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देश में ही रहने और निवेश करने के लिए राज़ी कर पाए. 1992 में उनका अपनी दूसरी पत्नी के साथ तलाक हो गया था जब विनी मंडेला पर अपहरण और हमले का आरोप लगा. अपनी 80वीं सालगिरह पर उन्होंने मोज़ांबिक के पूर्व राष्ट्रपति की विधवा ग्राका माशेल से शादी कर ली. राष्ट्रपति पद छोड़ने के बाद भी वो दुनिया का भ्रमण करते रहे, विश्व नेताओं से मिलते रहे और पुरस्कार बटोरते रहे. आधिकारिक रूप से सेवानिवृत्ति के बाद उनका ज़्यादा वक्त उनके द्वारा स्थापित मंडेला फ़ाउंडेशन के कामों में ही गुज़रा. अपनी 89वीं सालगिरह पर उन्होंने एल्डर्स नामक संस्था का गठन किया जिसमें बड़ी और जटिल समस्याओं को सुलझाने और सुझाव देने के लिए दुनिया के बड़े बड़े नेता शामिल हुए. जब 2005 में उनके इकलौते बेटे की मौत हुई तो सामाजिक वर्जनाओं से घिरे दक्षिण अफ़्रीकी समाज के बावजूद उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा कि उनकी मौत एड्स की बीमारी से हुई है.
उन्होंने दक्षिणी अफ़्रीकी लोगों से कहा कि वो एड्स के बारे में खुलकर बात करें जिससे वो भी एक आम बीमारी की तरह ही नज़र आए.

Wednesday 4 December 2013

मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के लिए संकट भरा रहेगा यह सत्र

यूपी विधानसभा का शीतकालीन सत्र पांच दिसम्बर से शुरू हो रहा है. विधानमंडल के इस सत्र के काफी हंगामेदार रहने के आसार है. माना जा रहा है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के लिए यह सत्र संकट भरा रहेगा. उन्हें इस सत्र में विपक्ष के तीखे सवालों का सामना करना पड़ेगा.   मुजफ्फरनगर के दंगे से लेकर गन्ना किसानों की समस्याओं पर विपक्ष सरकार को घेरेगा. भाजपा ने भी अपने विधायक संगीत सोम व सुरेश राणा के ऊपर रासुका लगाने के मामले को सदन में विशेषाधिकार हनन के रूप में उठाने का फैसला किया है. मुजफ्फरनगर दंगे को लेकर हुए स्टिंग ऑपरेशन की जांच रिपोर्ट पर भी सत्र के दौरान सवाल उठ सकते हैं. विपक्ष के ऐसे हमलावर रूख के बीच इस सत्र में अखिलेश सरकार की प्राथमिकता अनुपूरक बजट पारित कराना होगा. विधानमंडल का बीता सत्र अगस्त में हुआ था. तब भी अनुपूरक बजट पारित कराया गया था. लोकसभा चुनाव से पहले आम बजट प्रस्तुत नहीं होने की उम्मीद के चलते पांच दिसंबर से हो रहा शीतकालीन सत्र सरकार और विपक्ष दोनों के लिए काफी महत्वपूर्ण है. विपक्ष इस सत्र के दौरान अखिलेश सरकार के नकारापन का खुलासा करने पर तुला है. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष डा. लक्ष्मीकांत वाजपेयी कहते हैं कि अखिलेश सरकार हर मोर्चे पर पूरी तरह नकारा साबित हो चुकी है. ऐसे में भाजपा सदन में गन्ना मूल्य में वृद्धि न होने और पेराई सत्र में देरी को लेकर सपा सरकार को घेरेगी. इसके अलावा मुजफ्फरनगर दंगे को लेकर विस्थापितों के लिए घोषित नीति पर सुप्रीम कोर्ट की प्रतिकूल टिप्पणी और संगीत सोम व सुरेश राणा पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगाए जाने को एडवाइजरी बोर्ड की मंजूरी न मिलने जैसे मुद्दे भी उठाएंगे.
कांग्रेस विधानमंडल दल के नेता प्रदीप माथुर भी सदन में अखिलेश सरकार को घेरने का कोई मौका ना गंवाने का दावा करते हैं. माथुर का कहना है कि गन्ना संकट के अलावा दंगा व कानून व्यवस्था आदि मुद्दों को पूरी तैयारी से उठाया जाएगा. प्रदेश खाद्य सुरक्षा कानून न लागू करने के सवाल पर सरकार को घेरेंगे. बसपा के स्वामी प्रसाद मौर्य कहते है कि सपा सरकार के कार्यकाल को भले ही 20 माह बीतने वाले हों, लेकिन कानून-व्यवस्था के मामले में प्रदेश की स्थिति आज भी बदतर है. रालोद विधानमंडल दल नेता दलवीर सिंह का कहना है कि अखिलेश सरकार ने सूबे के गन्ना किसानों की घोर अनदेखी की है और ‍चीनी मिल मालिकों के दबाव में गन्ना किसानों की समस्याओं को नजरदांज किया गया है. रालोद सदन में गन्ना किसानों की समस्याओं को लेकर अखिलेश सरकार को घेरते हुए अखिलेश सरकार को किसान विरोधी सरकार साबित करने का प्रयास करेगा.  विपक्षी दलों के इस हमलावर रूख का सामना सदन में अखिलेश यादव को करना होगा. विपक्ष के इस तीखे हमले से अखिलेश को आजम खां और शिवपाल सिंह यादव कैसे बचाते हुए अनुपूरक बजट पास कराएंगे ? विधानसभा के सत्र में ही अब इसका खुलासा होगा. फिलहाल सूबे के संसदीय कार्यमंत्री आजम खां का दावा है कि विपक्ष के सभी हमलों का जवाब सदन में दिया जाएगा.

भारत को तोड़ने की ख़ौफनाक साज़िश रच रही हैं दो खतरनाक खु़फिया एजेंसियां

यह भारत को तोड़ने की बेहद ख़ौफनाक साज़िश है| जिसे रच रही हैं विश्व की दो सबसे खतरनाक खु़फिया एजेंसियां| मक़सद है हिंदुस्तान में गृहयुद्ध का कोहराम मचाना| यहां की ज़म्हूरियत को नेस्तनाबूद करना| संस्कृति और परंपराओं को दूषित-संक्रमित करना, ताकि इस देश का वजूद ही खत्म हो जाए| इसके लिए निशाने पर हैं देश की अज़ीम ओ तरीम 35 हस्तियां| इन दोनों ख़ु़फिया एजेंसियों के एजेंट्‌स न्यायाधीशों, राजनीतिज्ञों, मंत्रियों, नौकरशाहों एवं शीर्ष पत्रकारों की दिन-रात निगरानी कर रहे हैं| यहां तक कि अपने बेहद निजी पलों में भी ये 35 हस्तियां मह़फूज नहीं हैं| जासूसी करने वाले एजेंट्‌स के नाम हैं-ई जासूस, जो बग़ैर दिखे और बिना किसी कैमरे या इलेक्ट्रॉनिक उपकरण के शयनकक्षों तक में घुसकर अपना जाल बिछा चुके हैं| देश की सभी अहम पार्टियों के शीर्ष नेताओं की हरकतें, उनकी बातचीत सहित कुछ भी, इन ई-जासूसों की नज़रों से छुपा नहीं है| सीआईए और मोसाद मिलकर भारत के खिला़फ इस षड्‌यंत्र को अंजाम दे रहे हैं| ज़रिया बना है इंटरनेट. फेसबुक, ऑरकुट, जीमेल, याहूमेल, टि्‌वटर सब पर पैनी नज़र है| अमेरिकी खु़फिया एजेंसी सीआईए ने 20 मिलियन डॉलर निवेश करके इन-क्यू-टेल नाम की एक कंपनी बनाई है| इन-क्यू-टेल ने अमेरिका की कई जानी मानी सॉफ्टवेयर कंपनियों को अपने साथ जोड़ा है| यह कंपनी इंटरनेट की म़ुकम्मल दुनिया पर गहरी और बारीक़ नज़र रख रही है| हज़ारों लोगों को इस काम के लिए नियुक्त किया गया है| सीआईए के 90 एजेंट इस पूरे अभियान को दिशा और गति दे रहे हैं| विश्व की 15 प्रमुख भाषाओं में काम किया जा रहा है| सीआईए ने इसके लिए भाषा विशेषज्ञों और सैन्य विशेषज्ञ इंजीनियरों की नियुक्ति की है| हिंदी, अंग्रेजी, अरबी, उर्दू, फारसी, चीनी, फ्रेंच, रूसी, जर्मनी, संस्कृत एवं जापानी आदि भाषाओं में इंटरनेट पर होने वाले सभी आदान-प्रदान का रिकॉर्ड सीधे सीआईए मुख्यालय में दर्ज़ हो रहा है|  भारत की गुप्तचर एजेंसियों को इस बात की पूरी खबर है कि सीआईए और मोसाद के ई-जासूस इंटरनेट के ज़रिए देश के पैंतीस खासम़खास लोगों के घरों में अपनी जगह बना चुके हैं| भारत या विश्व में कहीं भी ये पैंतीस लोग जैसे ही अपना ईमेल अकाउंट खोलते हैं, ई-जासूस सक्रिय हो जाते हैं| नेट के ज़रिए चैटिंग, ई-व्यापार, बातचीत, डाटा का आदान-प्रदान, फ्लिकर या यूट्युब का इस्तेमाल आदि सब कुछ सीआईए मुख्यालय और मोसाद मुख्यालय में सीधे रिकॉर्ड हो रहा है| बंद कमरों में की गई इनकी बातें, मुद्दों पर चर्चाएं और योजनाएं-सब. जिस सॉफ्टवेयर के ज़रिए ये सभी सूचनाएं इकट्ठा की जा रही हैं, वह यहां तक बताता है कि कौन सी सूचना नकारात्मक है और कौन सी सकारात्मक, कौन सी चर्चा हल्की है और कौन सी गंभीर| इन 35 लोगों के अलावा भारत के जिन अन्य लोगों का लेखा-जोखा रखा जा रहा है, उनकी बातचीत को भी यह सॉफ्टवेयर रिकॉर्ड कर रहा है और उनकी श्रेणी भी निर्धारित कर रहा है| सीआईए ने जिन खास लोगों को अपने निशाने पर ले रखा है, उनका वह शारीरिक नुक़सान नहीं करना चाहती, बल्कि उन शीर्ष लोगों के निजी क्षणों का ब्यौरा इकट्ठा कर उनका सामाजिक रूप से पतन करना चाहती है| भारत की खुफिया एजेंसी के एक बड़े अधिकारी बताते हैं कि सीआईए और मोसाद इन दोनों की यही कोशिश है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों का इस तरह से चरित्र हनन किया जाए कि वे समाज में अपना मुंह दिखाने के क़ाबिल न रहें| जब चरित्र धूल-धूसरित होगा तो नेता टूटेगा| नेता पर दाग़ लगने से पार्टी बिखरेगी| और, ऐसी हालत में देश कमज़ोर होगा| आमजनों का नेताओं से भरोसा उठेगा, अराजकता फैलेगी| तब सीआईए और मोसाद जैसी विध्वंसकारी ताक़तों को मौक़ा मिलेगा भारत पर क़ाबिज़ होने का, देश को तहस-नहस करने का| दरअसल देखा जाए तो हो भी यही रहा है| अचानक ही अलगाववादी शक्तियों ने एक साथ अपना सिर उठा लिया है| यूं तो व़क्त-व़क्त पर अलग-अलग राज्यों की मांगें उठती रही हैं, पर ये इतनी तीव्रतर कभी नहीं थीं| तेलंगाना, बुदेलखंड, कामतापुर, पूर्वांचल, हरित प्रदेश एवं गोरखालैंड आदि राज्यों की मांगें इतनी ज़ोर पकड़ चुकी हैं कि, इनके लिए किए जा रहे आंदोलन हिंसक हो चुके हैं|  विघटनकारी तत्व देश की अखंडता पर हावी हो चुके हैं| इन विघटनकारी शक्तियों को बड़ी आर्थिक मदद विदेशों से मिलती है| ज़ाहिर है, ये वही विदेशी ताक़तें हैं जो भारत की अस्मिता को छिन्न-भिन्न करना चाहती हैं| आज़ादी के बाद देश के 14 राज्यों का 21 राज्यों में बंटना, फिर 25 राज्यों का बन जाना, उसके बाद 28 राज्यों का गठन और अब उनके भी टुकड़े करने की आवाज़ों का उठना| भाषाई, सामाजिक और आर्थिक स्तर के आधार पर हिंदुस्तान के टुकड़े-टुकड़े कर देना| अंगे्रजों ने हिंदुस्तान के इसी बिखराव का फायदा उठाकर इसे अपना ग़ुलाम बना लिया था| आज़ादी के बाद भारत एक हुआ| मज़बूत बना, विकास के नए आयाम ग़ढे गए, तरक्की के सोपानों पर च़ढता हुआ भारत विश्वशक्ति बनने की ओर अग्रसर हुआ| विश्वव्यापी आर्थिक मंदी भी भारतीय अर्थव्यवस्था की री़ढ नहीं तोड़ सकी| जबकि अमेरिका जैसे महाशक्तिशाली देश की भी चूलें हिल गईं| यक़ीनन ये हालात अमेरिका को गंवारा नहीं| वह भला कैसे चाहेगा कि भारत विश्वशक्ति बन उसका मुक़ाबला करे| लिहाज़ा एक बार फिर भारत को टुकड़ों में करने की साज़िश में सीआईए अपनी सहयोगी मोसाद के साथ लग चुकी है| सोशल नेटवर्किंग साइट इसमें बहुत बड़ी मददगार साबित हो रही है| साइबर क्राइम के मशहूर वकील पवन दुग्गल कहते हैं कि नेट के 70 प्रतिशत यूजर्स ग़ैर अमेरिकी हैं| ये अमेरिका से बाहर रहते हैं| 180 देशों में इनका जाल फैला हुआ है| 200 से ज़्यादा ग़ैर अमेरिकी भाषी ब्लॉगर टि्‌वटर समूह हैं| इनकी रीयल टाइम सूचना सीआईए के मिशन को बहुत ़फायदा पहुंचा रही है| कंप्यूटर्स नेटवर्किंग की सबसे बड़ी कंपनी सिस्को की वार्षिक सुरक्षा रिपोर्ट 2009 में यह भी खुलासा हुआ है कि स्पैम मेल ट्रैेफिक के मामले में भारत इस साल दुनिया का नंबर तीन देश बन गया है| इस साल भारत में स्पैम मेल के मामले में 130 प्रतिशत का इज़ा़फा हुआ है| भारत में फेसबुक यूजर्स की तादाद 35 करोड़ तक जा पहुंची है| सीआईए के लिए फेसबुक मुंहमांगी मुराद साबित हो रहा है| सीआईए जिस वायरस के ज़रिए अपने ई-जासूसों को बेहद तेज़ी से फैला रहा है, उसका नाम फेसबुक का उल्टा कर कूबफेस रखा गया है| हालांकि सीआईए ने 2008 में ही इस वायरस को इंटरनेट की दुनिया में छोड़ दिया था, लेकिन यह पूरी तरह से सक्रिय 2009 के आ़खिर तक हुआ| टि्‌वटर भी पूरी तरह इसकी चपेट में आ चुका है| शुरुआत में यह वायरस अमूमन यू ट्यूब लिंक पर क्लिक करने के लिए उकसाता था, लेकिन अब फेसबुक, टि्‌वटर और ऑरकुट आदि पर दोस्तों के फर्ज़ी नाम से सूचनाएं भेजकर प़ढने को उकसाता है| सीआईए का सबसे घातक वायरस ट्रॉजन है, जो 2009 का सबसे खतरनाक वायरस माना गया है| यह नाम, पासवर्ड, और बैकिंग डीटेल्स से भी आगे जाकर आपके दोस्तों के भी डिटेल्स चुरा लेता है| यह इतना खतरनाक वायरस है कि इसे कई एंटी वायरस प्रोग्राम भी नहीं पकड़ पाते हैं| 2009 में तकरीबन 62 लाख कंप्यूटर इस वायरस के शिकार हुए हैं| गृह मंत्रालय के एक अधिकारी के मुताबिक़, भारत के 172 बेहद मशहूर लोगों की बैकिंग डीटेल्स और उनकी निजी बातें इस वायरस ने हैक कर ली हैं| इसमें कुछ ऐसे संवेदनशील मसले हैं कि जो आम हो जाएं तो देश में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संकट खड़ा हो जाए| भारत में गृहयुद्ध के आसार पैदा करने के लिए सीआईए और मोसाद इन्हीं उपलब्ध सूचनाओं को अपना हथियार बना रही हैं| वे बस सही मौके की तलाश में हैं|

Wednesday 27 November 2013

बदलाव की आहट

लोकतंत्र को जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए शासन कहा गया है. लोकतंत्र की मूल भावना बची रहे, इसके लिए जरूरी है कि जनता चुनाव में पूरे उत्साह से भाग ले. जनता, ‘जनार्दन’ इसलिए है, क्योंकि उसके पास वोट की शक्ति है. पिछले कुछ वर्षो में विभिन्न राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के मतदान प्रतिशत पर गौर करें, तो एहसास होता है कि जनता का वोट की अपनी ताकत में यकीन बढ़ा है.
वह ‘कोऊ नृप होये हमें का हानी’ की पुरानी उदासीनता से बाहर आ रही है. उसका यकीन इस बात में बढ़ा है कि वह वोट के सहारे अपनी किस्मत बदल सकती है. इस विश्वास की तसदीक खुद आंकड़े कर रहे हैं. पिछले दो-तीन वर्षो में विभिन्न राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में लगभग हर जगह मतदान का नया रिकॉर्ड बना है. पंजाब में 77 फीसदी, उत्तराखंड में 70 फीसदी, हिमाचल में 75 फीसदी, उत्तर प्रदेश में 59 फीसदी. यह सिलसिला थमता हुआ नहीं दिखता है. छत्तीसगढ़ के बाद मध्य प्रदेश और मिजोरम से भारी मतदान की खबरें आयी हैं. छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाकों में नक्सलियों द्वारा चुनाव के बहिष्कार के एलान के बावजूद मतदान केंद्रों के बाहर जनता की लंबी कतारें देखी गयीं. इसने इस विश्वास को पुख्ता किया कि जनता बुलेट की जगह बैलेट के रास्ते पर चलना चाहती है. राज्य में इस बार रिकॉर्डतोड़ करीब 75 फीसदी मतदान दर्ज किया गया. अब मध्य प्रदेश में 71 प्रतिशत और मिजोरम में 81 फीसदी मतदान का नया रिकॉर्ड कायम हुआ है. एक स्तर पर इसे चुनाव आयोग की सफलता कहा जा सकता है, जिसने जागरूकता अभियान चला कर और उससे भी बढ़ कर निष्पक्ष एवं कमोबेश शांतिपूर्ण मतदान सुनिश्चित करके जनता में लोकतंत्र के महाकुंभ के प्रति आस्था फिर से जगायी है. मगर, बधाई की असल हकदार जनता है, जिसने मतदान द्वारा लोकतंत्र की जड़ता को भंग करने का उत्साह दिखाया है. राजनीतिक दलों के लिए मतदान केंद्रों की ओर बढ़े जनता के कदम के निहितार्थो को समझने की जरूरत है. लोकतंत्र के आलोचक यह कहते रहे हैं कि ‘जनता को अपनी जैसी ही सरकार मिलती है’. जाहिर है, जब जनता बदल रही हो, तो सरकारों और पार्टियों को भी खुद में बदलाव लाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा.

Tuesday 26 November 2013

ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे राजीव गांधी

राजीव गांधी 1990-91 में खुद प्रधानमंत्री न बनकर ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे। उस समय राजनीतिक अस्थिरता के दौरान उन्होंने दो बार बसु को मनाने की कोशिश की थी। यह दावा बंगाल के डीजीपी और सीबीआई के डायरेक्टर रहे अरूण प्रसाद मुखर्जी ने अपनी जीवनी में किया है। हाल ही में प्रकाशित किताब "अननोन फेसेट्स ऑफ राजीव गांधी, ज्योति बसु, इंद्रजीत गुप्ता" मुखर्जी की डायरी पर आधारित है।गौरतलब है कि 1956 में आईपीएस ज्वाइन करने के साथ ही मुखर्जी ने डायरी लिखना शुरू किया था। इसमें दार्जिलिंग एसपी, बंगाल डीजीपी, राज्य सतर्कता आयुक्त, सीबीआई चीफ, गृह मंत्रालय में विशेष सचिव और आखिर में गृह मंत्री (इंद्रजीत गुप्त) के सलाहकार के तौर पर काम करने के दौरान राजीव गांधी, ज्योति बसु और इंद्रजीत गुप्त के साथ बातचीत के ब्यौरे मुखर्जी ने दर्ज किये हैं। अक्टूबर 1990 में मुखर्जी गृह मंत्रालय में विशेष सचिव के तौर पर कार्यरत थे।राजीव गांधी ने मुखर्जी से कहा कि वह ज्योति बसु के साथ उनकी बैठक तय करें। लेकिन वामपंथी नेता बसु ने कहा कि इस बारे में कोई भी निर्णय पार्टी की सेंट्रल कमेटी और पोलित ब्यूरो का होगा। इस मसले पर सीपीएम के वीटो के चलते राजीव गांधी की तीसरी पसंद चंद्रशेखर कांग्रेस की मदद से प्रधानमंत्री बने। 1991 में जब चंद्रशेखर को असफलता हाथ लगी, तो राजीव गांधी ने एक बार फिर ज्योति बसु से संपर्क किया, लेकिन बसु ने दोबारा यह निर्णय पार्टी के ऊपर डाल दिया। मुखर्जी ने लिखा है, राजीव का संदेश लेकर मैं पूर्व सांसद बिप्लव दास गुप्ता से उनके घर पर मिला। लेकिन मेरा अंदाजा सही साबित हुआ.. और बंगाल के हित में लेफ्ट फ्रंट को अपने पांव पसारने के लिए मिला दूसरा मौका अपनी मौत मरने को मजबूर हुआ। बंगाल के पूर्व डीजीपी के मुताबिक पांच साल बाद संसद में जारी गतिरोध के चलते क्षेत्रीय नेताओं (जिनमें मुलायम सिंह भी शामिल थे) ने बसु का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया, लेकिन सीपीएम सेंट्रल कमिटी ने फिर इसके खिलाफ मतदान किया। 1996 के आखिर में एक साक्षात्कार के दौरान बसु ने इसे "ऎतहासिक भूल" करार दिया। मुखर्जी ने इस बारे में लिखा है, ये सब जानते हैं कि ऎसी बडी गलतियां 1990-91 के दौरान दो बार हुईं जो कि सीपीएम की अदूरदर्शिता, छोटी सोच और बडी गलतियां करने की आदतों का परिणाम थी।

'पर्सन आफ दी ईयर' की सूची में मोदी

भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता अब देश की सीमा लांघकर विदेशों में भी पहुंच गई है। दुनिया की जानी-मानी अमेरिकी पत्रिका टाइम ने पर्सन आफ दी ईयर उपाधि के लिए 42 नेताओं की सूची में मोदी का नाम शामिल किया है। एक ऑनलाइन पोल के आधार पर मोदी का नाम तय किया गया है। इस लिस्ट में मोदी ही एकमात्र भारतीय हैं। टाइम पत्रिका ने पूरी दुनिया से अपनी इस उपाधि के लिए 42 नेताओं, उद्यमियों और सेलेब्रिटी को चुना है और वह इसके विजेता की घोषणा अगले माह करेगी। मोदी का नाम इस लिस्ट के लिए पत्रिका ने शार्टलिस्ट किया है। इस उपाधि की दौड़ में टाइम पत्रिका द्वारा शामिल किए गए अन्य उम्मीदवारों में जापान के प्रधानमंत्री शिंजो एबे, अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, पाकिस्तान की किशोरी शिक्षा कार्यकर्ता मलाला युसूफजई, अमेजन के सीईओ जैफ बिजोस और एनएसए व्हिस्ल ब्लोअर एडवर्ड स्नोडेन हैं। पत्रिका ने इस उपाधि के लिए मोदी के नाम को शार्टलिस्ट करने के साथ कहा है कि विवादास्पद हिंदू राष्ट्रवादी और भारतीय राज्य गुजरात के मुख्यमंत्री भारत की सत्तारूढ़ पार्टी कांग्रेस को उखाड़ फेंकने के लिए संभावित उम्मीदवार हैं। खास बात ये भी है कि इस सूची में शामिल किए वालों में मोदी एकमात्र भारतीय हैं। लिस्ट में शामिल किए गए सभी लोगों के लिए पत्रि का ने वोटिंग लाइन खोल रखी है। जिसमें अबतक मोदी को 2650 मत मिले हैं। कुल वोटिंग का 25 फीसदी वोट हासिल कर मोदी ऑनलाइन रीडर पोल में आगे चल रहे हैं।

उम्मीद की किरण का स्वागत

ईरान के परमाणु कार्यक्र म को लेकर उसके और पश्चिमी देशों के बीच हुए समझौते से पूरे विश्व ने ही राहत की सांस ली होगी। ईरान के साथ हुए अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, फ्रांस, जर्मनी, चीन और यूरोपीय संघ का यह समझौता हालांकि फिलहाल छह महीने के लिए ही है, लेकिन इससे उस तनाव के स्थायी समाधान की उम्मीद अवश्य जगी है, जिसने पिछले लगभग एक दशक से शांति के पक्षधरों की धड़कनें बढ़ा रखी थीं। दरअसल इस समझौते की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि दोनों ही पक्षों को टकराव से हट कर  संवाद के जरिये इस समस्या का स्थायी समाधान खोजने के लिए छह माह का समय मिल जायेगा। इस अवधि के लिए ईरान जहां अपने यूरेनियम  संवर्धन कार्यक्रम को सीमित करने और अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के विशेषज्ञों के साथ सहयोग के लिए सहमत हो गया है, वहीं अमेरिका समेत ये ताकतवर देश उस पर लागू प्रतिबंधों में कुछ ढील देने पर मान गये हैं। जिनेवा में चार  दिनों से भी ज्यादा चली बातचीत के बाद रविवार को इस ऐतिहासिक समझौते पर पहुंचा जा सका। परमाणु कार्यक्रम को लेकर ईरान और अमेरिका के बीच वाक्युद्ध जिस तरह तनातनी में बदल रहा था, उससे शांतिप्रिय देशों का आशंकित होना स्वाभाविक ही था। इसीलिए कुछ देशों ने दबाव बनाया कि संवाद के जरिये समाधान खोजने की कोशिश की जानी चाहिए । कहना नहीं होगा कि वह कोशिश आखिर कारगर भी साबित हुई। इस समझौते के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा भी कि इस राजनय से विश्व को और अधिक सुरक्षित बनाने का मार्ग प्रशस्त करने में सफलता मिली है। साथ ही इससे ईरान के शांतिप्रिय परमाणु कार्यक्रम की पुष्टि भी बेहतर ढंग से हो पायेगी, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वह परमाणु हथियार न बना सके। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि ईरान के विदेश मंत्री मोहम्मद जावेद जरीफ ने सफाई दी है कि उनके देश ने यूरेनियम संवर्धन का अपना अधिकार छोड़ा नहीं है, लेकिन ईरान की यह प्रतिबद्धता कि वह अपनी यूरेनियम संवर्धन क्षमता पांच प्रतिशत तक ही सीमित रखेगा, जो ऊर्जा उत्पादन के लिए तो पर्याप्त है, लेकिन उससे परमाणु बम नहीं बनाया जा सकता—निश्चय ही उसके रुख में नरमी का संकेत है। इसके अलावा ईरान अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के विशेषजों को अपने परमाणु संयंत्रों की दैनिक निगरानी के अवसर उपलब्ध कराने पर भी सहमत हो गया है। जाहिर है, परमाणु कार्यक्रम को लेकर विश्व समुदाय की चिंता और बढ़ते दबाव को ईरान ने महसूस किया है। हालांकि इस आधार पर कोई अंतिम निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी, लेकिन दोनों ही पक्षों द्वारा अपनी-अपनी हठधर्मिता छोडऩे का संवाद के जरिये समस्या के शांतिपूर्ण समाधान का मार्ग प्रशस्त होने के रूप में तो स्वागत किया ही जाना चाहिए। दरअसल भारत शुरू से ऐसे ही प्रयासों की पैरवी करता रहा है। इन प्रयासों की शुरुआती सफलता जहां भविष्य के लिए उम्मीद की किरण जगाती है, वहीं इस्राइल की प्रतिक्रिया चिंताजनक है। इस्राइल ने इस समझौते को ईरान के जाल में फंसने जैसा बताया है। बेशक अंतिम परिणति तो अभी भविष्य के गर्भ में ही है, लेकिन एक शांतिपूर्ण सकारात्मक प्रयास से जगी उम्मीद की किरण का तो स्वागत ही किया जाना चाहिए।

इतिहास-भूगोल नहीं, आलू चाहिए

इन दिनों अपने देश में राजनेताओं के बीच इतिहास और भूगोल की जानकारी को लेकर जोरदार बहस छिड़ी हुई है. किस नेता को देश के इतिहास और भूगोल की कितनी जानकारी है, इस पर दावों, प्रतिदावों, खंडन और मंडन का दौर जारी है. बिहार से लेकर गुजरात और दिल्ली तक के नेताओं व उनके समर्थकों में इस बात की होड़ मची है कि  उनके नेता के पास देश के इतिहास-भूगोल की सबसे बेहतर जानकारी है. पता नहीं यह राजनीति है या कोई बौद्धिक बहस? वैसे मुङो यह बहस बौद्धिक कम और केबीसी मार्का क्विज ज्यादा लग रही है. इतिहास-भूगोल जैसे विषयों पर बहस करने के लिए देश में बुद्धिजीवियों की कोई कमी तो है नहीं. वे इस विषय में पारंगत भी हैं. जिनका यह काम है, उन्हें करने दीजिए. कहा भी गया है, जिसका काम उसी को साजे. राजनेताओं का काम है जनता को समस्याओं से निजात दिलाने का. जिसका दावा भी वे करते हैं. पर अब उन्हें जनता से कोई मतलब नहीं रह गया है. इसलिए तो अब कोई जन-नेता नहीं पैदा होता, अब जाति-नेता पैदा हो रहे हैं. अभी देशवासियों के लिए इतिहास-भूगोल की जानकारी से अधिक अहम है आलू-प्याज का भाव जानना. आलू और प्याज के बिना रहने की कल्पना आम लोग कर भी नहीं सकते. पेट भरने के लिए इससे सुलभ  और सर्वग्राह्य कुछ भी नहीं. सत्तू से लेकर खिचड़ी, और समोसा से लेकर खाने की हर थाली आलू-प्याज के बिना अधूरी मानी जाती है. प्याज तो पहले भी गाह-बगाहे रुलाती रही है, लेकिन आलू इस कदर पहली बार महंगा हुआ है. जनता आलू-प्याज को लेकर परेशान है और हमारे नेता लोग इतिहास-भूगोल के ज्ञान पर बेमतलब की बहस लेकर बैठे हैं. जब पेट भरा हो, तभी कोई बहस भी अच्छी लगती है. भ्रष्टाचार से लेकर कालाधन, और बढ़ती महंगाई से लेकर आतंकवाद तक कई समस्याएं अपने यहां मुंह बाये खड़ी हैं, लेकिन मीडिया में इतिहास को लेकर बहस जारी है. इन फालतू की बहसों से न तो देश का भला होना है और न ही निवाला मिलना है. मजे की बात तो यह है कि बात- बात पर अपने ब्लाग के जरिए नया तराना छेड़ने- वाले या फिर ट्वीट करनेवाले आलू-प्याज के मामले में चुप क्यों हैं? मुझे तो लगता है कि वे कभी आलू-प्याज खरीदें, तब न जनता की पीड़ा का एहसास हो. उनके लिए तो एक कॉल पर हर तरह की सेवा और सुविधा उपलब्ध हो जाती है, तो आलू-प्याज कहां से ध्यान में आयेगा? नेताओं के बीच इस तरह ज्ञान पर बहस पहली बार शुरू हुई है. असल में जनता की परेशानी पर बोलने का नैतिक आधार खो चुके इन नेताओं को सुर्खियों में बने रहने के लिए नया-नया तिकड़म आजमाना पड़ता है. नेताओं को एक सुझाव. अगर आलू-प्याज पर इतनी बहस कीजिए, तो शायद आमजन के बीच पैठ बन जाए.

Monday 25 November 2013

अखिलेश से परेशान मुलायम !



अखिलेश से परेशान मुलायम !

यूपी के दंगों ने सत्ताधारी दल समजवादी पार्टी की मुस्किले बढ़ा दी हैं| सपा के दो वर्त्तमान सांसदों ने ऐसी हालत में पार्टी के टिकट से चुनाव लड़ने से मना कर दिया है| सूत्रों के हवाले से मिल रही खबरों को यदि सही माने तो इसके बाद कई और सांसद इसी कतार में खड़े हैं| इन सांसदों को लगता है कि अखिलेश यादव कि छवि उनके लिए मुश्किलें खड़ी कर सकती है| इससे पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव की पेशानी पर बल आ गया है| सूत्र बताते हैं कि इसके मद्देनजर मुलायम ने अब कमान अपने हाथों में ले ली है| इसके बाद मुलायम स्वयं सक्रिय हो गए हैं और घटनाक्रम पर अपनी पैनी नज़र बनाये हुए हैं| सपा नेताओं के मुताबिक जल्द ही कुछ सीटों पर प्रत्याशी बदले जा सकते हैं| सपा के कुछ नेताओं ने हमें नाम न उजागर करने कि शर्त पर बताया कि अखिलेश मुस्लिम और ओबीसी के साथ सम्बन्ध खराब कर चुके हैं। हाल में ही हुए दंगों और अखिलेश के कुछ निर्णयों ने इन दोनों के बीच गलत सन्देश दिया है| सपा के रणनीतिकारों ने इस बात को धयान में रखते हुए ही मुलायम के भाषण में मुस्लिम और ओबीसी को विशेष स्थान दिया| इस का नतीजा ये हुआ कि मुलायम इस समय जो कुछ भी मंच से बोलते हैं उनमें ये दोनों प्रमुखता से होते हैं| मुलायम की परेशानी ये भी है कि बीजेपी पीएम प्रत्याशी नरेंद्र मोदी जिस तरह से यूपी में अपना जनाधार बढ़ा रहे हैं उससे मुलायम को लगने लगा है कि मोदी उनके लिए परेशानी का सबब बन सकते हैं| मुलायम के करीबी कहते हैं कि मोदी के खिलाफ अखिलेश अधिक कारगर नहीं साबित हो सकते ऐसे में नेता जी ही काम सम्भाले तभी भला होगा वरना चुनाव हाथ से निकला ही समझों| मुलायम ने सपा संगठन पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए बूथ स्तर पर अपने सूत्र सक्रीय कर दिए हैं जो उनको पल पल कि खबर दे रहे हैं| मुलायम को जो आउटपुट मिल रही है उसके मुताबिक जमीनी स्तर पर अखिलेश बहुत अच्छी छवि नहीं रखते हैं| अब ये देखना होगा कि लोकसभा चुनाव में सपा मुलायम की मेहनत पर पानी फेरती है या फिर उनको मनचाहे परिणाम मिलते हैं|

Sunday 24 November 2013

कर न सके हम प्याज का सौदा.....





कर सके हम प्याज का सौदा, कीमत ही कुछ ऐसी थी/ लाल टमाटर छोड़ आये हम, किस्मत ही कुछ ऐसी थी.. आजकल हर मैंगो मैन (आम आदमी) की व्यथा कुछ ऐसी ही है. कुछ दिन पहले तक दाल-चावल की महंगाई का रोना रोनेवाले लोग सब्जियों की कीमतों में भारी इजाफे के बाद अब उसी दाल की दुहाई दे रहे हैं, शुक्र है कि दाल है, वरना शनिवार से गुरुवार तक उपवास ही करना पड़ता. आज हर कोई भले ही महंगाई से परेशान हो, पर एक शख्स ऐसा है जिस पर कोई असर नहीं हो रहा. आप जानना चाहेंगे उसके बारे में? वह है ईमानदार आदमी. उसे कल भी वस्तुएं महंगी लगती थीं, आज भी लगती हैं. वह कहता है, जमीर बेच कर पनीर नहीं खरीद सकता. भले ही भूखा रहना पड़े. जब जमीर ही मर जायेगा तो शरीर जिंदा रह कर क्या करेगा? आखिर बापू का प्रिय भजन वैष्णवजन तो तेणो कहिए जो पीर परायी जाणो रे.. कब काम आयेगा. बापू तो रहे नहीं, लाचारी में अन्ना हजारे को अपना आदर्श माननेवाला यह ईमानदार आदमी कभी अनशन, तो कभी उपवास, तो कभी धरना-प्रदर्शन के बहाने भोजन से मुक्ति पाने का बहाना ढूंढ़ता है. कल की ही बात है, एक टीवी चैनलवाले ने उसके मुंह में माइक ठूंसते हुए पूछा, आपको भूख हड़ताल से इतना लगाव क्यूं है भला? बोला, आज भी जिस देश की एक चौथाई आबादी को भूखे पेट सोना पड़ता हो, उस देश में भूख हड़ताल से बेहतर विरोध का कोई साधन नहीं हो सकता. इस देश की सरकार सो रही है. हमारे ही वोटों से जीत कर जन प्रतिनिधि का तमगा पहने ज्यादातर सांसद और विधायक संसद और विधानसभा की कैंटीनों में भयंकर सब्सिडीवाला खाना खाते हैं. इसलिए उन्हें लगता है कि जब इतना सस्ता खाना मिल रहा है, तो भला आम जनता महंगाई का हल्ला क्यों मचा रही है?
भले ही प्राकृतिक विपदा से तबाह उत्तराखंड को सरकार राहत दिला सकी हो, पर बढती महंगाई और सब्जियों और दूध के दाम में हो रही बेतहाशा वृद्धि के मद्देनजर कैलेंडर और पोस्टर योजना शुरू करने की योजना बना रही है. लोग सब्जियों की शक्ल भूल जायें इसलिए इनके पोस्टर छपवा कर घर-घर पहुंचाये जायेंगे. दूध भी आम आदमी की पहुंच से बाहर हो रहा है. बड़ों के लिए तो नहीं, पर बच्चों को इसकी खास जरूरत होती है. ऐसे में सरकार पोलियो ड्राप्स की तरह दूध ड्राप्स पिलाने के लिए मिशन दूध शुरू करने की तैयारी में है. महीने में एक दिन तय किया जायेगा, जब लोग अपने बच्चों को नजदीकी केंद्रों पर ले जा कर दूध ड्राप्स पिलवायेंगे. इसका स्लोगन भी दो बूंद जिंदगी की रखा जायेगा. ये बात अलग है कि इससे बच्चों को जिंदगी मिले मिले, सरकार को जरूर मिलेगी.